Jaipur
विलायत खान कहते थे ‘कोई चीज़ पसंद आए तो उसे अपने रंग में ढाल दो ‘ दूसरी प्रति नहि बनना ।
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1 year agoon
उस्ताद विलायत खान से बातचीत की चार दशक पुरानी दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स से जीवंत हुआ सितार सम्राट विलायत खान का सांगीतक सफर
शुक्रवार को कलानेरी आर्ट गैलरी परिसर में हुआ अनूठा कार्यक्रम –
जयपुर। संगीत के प्रचार-प्रसार में संलग्न नाद साधना इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन म्यूज़िक एंड रिसर्च सैंटर और मुंबई के नेशनल सैंटर फॉर परफॉरर्मिंग आर्ट की ओर से शुक्रवार को जयपुर में संगीत और संवाद का एक अनूठा कार्यक्रम आयोजित किया गया।
जवाहर लाल नेहरू मार्ग स्थित कलानेरी आर्ट गैलरी में हुए इस कार्यक्रम में शास्त्रीय संगीत के इमदाद खानी घराने के नामी सितार वादक उस्ताद विलायत खान के साथ सितार वादक पं. अरविन्द पारीक के सांगीतिक वार्तालाप और उनके सितार वादन की चार दशक से भी अधिक पुरानी दुर्लभ रिकार्डिंग्स संगीत प्रेमियों को सुनवाई गईं।
अरविन्द पारीक से बातचीत में विलायत खान ने कहा था
कि ‘कोई चीज़ पसंद आए तो उसे अपने रंग में ढाल दो ‘ दूसरी प्रति नहि बनना । क्योंकि सबके अपने अपने मत और सोच होते हैं। रिकार्डिंग्स में विलायत खान अरविन्द पारीक को बता रहे हैं कि सितार की विलायत खानी शैली कैसे बनी साथ ही राग, संगीत और वाद्य यन्त्र को लेकर उनका चिंतन भी इस दुर्लभ बातचीत में सुनने को मिला। कार्यक्रम दो चरणों में आयोजित किया गया। पहले में अरविन्द पारीक और विलायत खान की बातचीत तथा दूसरे में उनका चालीस साल पुराना रिकार्ड किया सितार वादन सुनवाया गया जिसमें उन्होंने राग यमन पेश किया था।
उस्ताद विलायत खान के शिष्य और पद्मभूषण से सम्मानित सितार वादक पं. अरविन्द पारीक का उनसे छह दशकों तक घनिष्ठ संबंध रहा है। इस प्रस्तुति में उनके अरविन्द पारीक के साथ 1976 से 1979 के बीच हुए सांगीतिक वार्तालाप सुनाए गए। ये दुर्लभ रिकार्डिंग्स नेशनल सैंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं।
इससे पूर्व कार्यक्रम संयोजक और प्रसिद्ध सुर बहार वादक डॉ. अश्विन एम. दलवी ने कार्यक्रम की भूमिका पेश की। उन्होंनंे बताया कि ये कार्यक्रम की तीसरी कड़ी है दो कड़ियां कोरोना काल से पहले आयोजित की जा चुकी हैं। आगे भी इस तरह की श्रंखला समय-समय पर आयोजित की जाती रहेगी।
उल्लेखनीय है कि विलक्षण प्रतिभा के धनी विलायत खान बीसवीं सदी के सर्वाधिक प्रभावशाली सितार वादकों में शुमार किए जाते हैं। उन्हें भारत का पहला ऐसा संगीतकार माना जाता है जिन्होंने भारत की आजादी के बाद इंगलैंड जाकर संगीत पेश किया। उनकी कला के सम्मान में राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने उन्हें ‘आफताब-ए-सितार’ का सम्मान प्रदान किया था लेकिन उन्होंने इसके बाद 1964 में पद्मश्री और 1968 में पद्मविभूषण सम्मान ये कहते हुए ठुकरा दिए कि भारत सरकार ने हिन्दुस्तानी संगीत में उनके योगदान का समुचित सम्मान नहीं किया। 13 मार्च, 2004 को मुंबई में उनका देहांत हो गया।
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