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बालों की कटिंग का कलात्मक कौशल – डॉ अजय अनुरागी

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डॉ अजय अनुरागी 

Jaipur 
आजकल शरीर की सारी प्रतिभा सिर के बालों पर ही सिमट गई है । नाई की नवोन्मेष शालिनी प्रतिभा इन दिनों चरम पर दिखाई देती है। बालों के संदर्भ में नाइयों के द्वारा नवाचारों के नए-नए आयाम प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
       सिर्फ सिर पर आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के इतने कटाव, छटाव, रचाव और कलात्मक कौशल के साथ पहले कभी नहीं देखे गए । फैशन के दौर में बालों में से बाल की जगह सवाल और बवाल दोनों ही निकल रहे हैं ।
   अब सिर का एक नया सौंदर्यशास्त्र रचा जा रहा है। कभी लगता है गर्दन रूपी स्तंभ पर बालों का छप्पर  तान दिया गया है, कभी लगता है चेहरे के चिकने किनारों को काटकर बंजर भूमि पर थूनी लगाकर एक झोपड़ी रख दी गई है । कभी लगता है सिर के बायीं ओर बालू से भरा तट तैयार कर दिया गया है और  उस पर काली कारपेट बिछा दी गई है तथा दाई और बालों का घनघोर जंगल फैला हुआ है जिसमें झाड़ झंकाड़ उग आए हैं ।         
  मानव का सिर एक  है लेकिन उसके विभिन्न रूपा हिस्से चार हैं , तथा चारों दिशाओं की हेयर नेचर और बालीय प्रस्तुति अलग-अलग है।  सिर को बांयी और से देखने पर कुछ और नजर आता है , दायीं ओर से देखने पर कुछ और दिखाई देता है । पीछे से देखें तो कुछ और दृश्य मिलता है जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में ढलवां खेतों की क्यारियों में खरपतवार उग आए हों। और आगे से देखो तो मामला कुछ और ही नजर आता है । सिर तो एक है मगर नजारे चार चार  हैं।

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   आज सारे बाल रंग बिरंगी हेयर स्टाइल से मनभावन लग रहे हैं।  हर बाल का अलग-अलग रंग है। विविधवर्णी, मल्टी कलर से सजे हुए होने लगे हैं आजकल के बाल। 
   हमारे जमाने में एक सिर वाले व्यक्ति की हेयर स्टाइल एक ही हुआ करती थी । वही आजीवन बनी भी रहती थी।  उसी में मामूली फेरबदल करके कलात्मकता का नया विधान रच दिया जाता था। ज्यादा बदलाव की गुंजाइश निम्न मध्यवर्गीय सिरों में नहीं हुआ करती थी ।  जिंदगी भर मूल खोपड़ी  जैसी थी वैसी ही बनी  रहती थी । केवल कपाल क्रिया के बाद खोपड़ी खुल जाया करती थी। 
 अब तो बालों ने ही बदल डाला है खोपड़ी को । नयी शैली में खोपड़ी को झोंपड़ी की तरह सजा दिया है ।खोपड़ी देखकर व्यक्ति  की कल्पना ही नहीं की जा सकती है । कभी वह बबूल पर रखा गिलहरी का घोंसला प्रतीत होता है , तो कभी गोबर के कंडों को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया बिटोरा जैसी झलक देता है । कोई कोई तो भूसे के लिए बनाई गई बुर्जी या बुर्ज सा दृश्य उपस्थित कर देता है।  बहुत अजीब , उम्मीद से कहीं आगे,  सिर से भी ऊपर हो गई है हेयर स्टाइल । 
       प्रायः बालों की भी एक शैली हुआ करती थी वही शैली व्यक्ति की  पहचान बन जाया करती थी। यदि टोपा, टोपी नहीं लगाई गई हो तो दूर से सिर के बालों की स्टाइल से ही व्यक्ति को पहचान लिया जाता था । आज कठिन है बालों के आधार पर व्यक्ति की पहचान। एक व्यक्ति को चार तरफ से देखें तो चार अलग-अलग आदमियों की झलक  उसमें दिखाई पड़ेगी।  पहचाना नहीं जा सकता है कि चार  सिर वाला  यह व्यक्ति कौन है?  बालों को लेकर नई पीढ़ी बहुत सजग हो गई है।  
    पुरानी पीढ़ी बालों को  उपेक्षा से देखा करती थी ।उनकी नजरों में बालों का व्यक्तित्व निर्माण संबंधी  कोई योगदान नहीं होता था। इसलिए  खाल और बाल दोनों पर कोई ध्यान नहीं दिया करता था। उस समय गाँव में  एक ही तरह का नाई होता था और उसके पास एक ही तरह की कैची और एक ही तरह का उस्तरा हुआ करता था ।  तथा वह एक ही तरह से बाल काट कर पटक दिया करता था । यदि उसने ज्यादा काट दिए तो छोटे बालों के साथ सिर को लेकर घूमते रहिए , यदि कम काट दिए तो बड़े बालों को लेकर ख़ुशी ख़ुशी घूमिए । नाई के मूड पर निर्भर करता था कि बाल कैसे काटे जाने हैं । 
  यह किवदंती प्रचलित थी कि छोटे बालों वाले सिर के दिमाग में ज्ञान आसानी से प्रवेश कर जाता है और बाल बड़े होते हैं तो ज्ञान को दिमाग में प्रवेश करते हुए कठिनाई होती है।  हमारे पिताजी बालों के बारे में बड़े सख्त विचार रखा करते थे । उनके अनुसार सिर के बाल इतने छोटे हों  कि लड़ाई के वक्त शत्रु के हाथों में न आ  सकें ।बाल शत्रु के हाथ आ गए तो  पराजय पक्की समझो। 
   पिताजी  बालों के बारे में इतनी सी ही जानकारी रखते थे कि यदि सिर पर बाल एक इंच तक अंकुरित हो जाएं तो उन्हें उस्तरे की भेंट चढ़ा देना चाहिए। उनकी नजरों से अपने बालों को बचा कर रख पाना  हमारे लिए बहुत मुश्किल हुआ करता था । कोई भी गलती करो उसका कारण पिताजी सिर के बढ़े हुए बालों में ही ढूंढ लिया करते थे । समस्त प्रकार की समस्याओं का समाधान भी बालों की छँटाई - कटाई में ही माना करते थे।
 अक्सर गर्मियों की छुट्टियां बालों की बलि लेकर गुजरती थीं ।छुट्टियां शुरू होते ही पहला काम होता था बच्चों की खोपड़ी से बालों का समूल विनाश।  सिर पर उस्तरा फिरवाकर घोटमोट कर दिया जाता था । हमें गर्मियों की छुट्टियाँ आने का अफसोस हुआ करता था । हम छुट्टियों को कोसा करते थे,  काश छुट्टियां नहीं आतीं तो बाल बचे रहते । बारिश आते-आते सिर पर काले काले अंकुर फूटना शुरू हो जाते थे। सफाचट सिर पर हाथ फेरना बड़ा शीतलता देता था। बालों का  अंकुरण बढ़ता जाता तो सिर पर एहसास होता जैसे जूते पालिश वाले ब्रश  पर हाथ फेरा जा रहा है। छुट्टियों में सिर के बालों को बचाने की हर युक्ति बेकार हो जाती थी। 
   आजकल गर्मियों में छुट्टियां होते हुए भी छुट्टियां नहीं होती हैं बच्चों के लिए। इसलिए सिर के बाल सर सराते दिखायी देते हैं , और वे तरह-तरह की कलागत विशेषताओं से सजे सजाए रहते हैं। आज मनुष्य की समस्त कलाएं बालों में उतर कर एक नया व्यक्तित्व रच रही हैं। हम सबको इसका स्वागत करना चाहिए।
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