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शाम की जुगाड में बेचैन सुबह – डॉ. अजय अनुरागी
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1 month agoon
डॉ. अजय अनुरागी
जयपुर :- महाशय जी सुबह-सुबह बेचैन नजर आ रहे थे , क्योंकि उन्हें शाम का कोई जुगाड़ नहीं मिल पा रहा था। वह सुबह जगते ही शाम की चिंता में डूब जाते थे । उनके लिए शाम महत्वपूर्ण होती थी , सुबह का कोई महत्व नहीं था ।
प्रायः जीवन में सुबह तो आसानी से कट जाती है किंतु शाम आसानी से कटती नहीं है, इसलिए शाम को काटने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है । यह शाम अकेले भी नहीं कट पाती है , इस कारण शाम को मिलकर काटने के प्रयत्न किए जाते हैं। साथ मिल बैठकर काटने से शाम रंगीन हो जाती है और आसानी से कट भी जाती है ।
महाशय जी का दिन रंगहीन , अर्थहीन व्यतीत हुआ करता था , परंतु शाम रंगीन और सार्थक बन जाती थी । वे शाम की रंगीनी को किसी भी कीमत पर जाने नहीं देते थे। कोई न कोई जुगत बैठा ही लिया करते थे। उन्हें जब भी कभी दिन के आयोजन में बुलाया जाता था , मगर वह वहां पहुंचते ही शाम के आयोजन की फिराक में लग जाते थे । उनके लिए दिन से अधिक शाम का आयोजन महत्वपूर्ण होता था। वे शाम को रंगीन बनाने के लिए दिन को रंगहीन कर दिया करते थे ।
एक बार एक शहर में उन्हें दिन के आयोजन में बुलाया गया था । वे दिन के आयोजन में पहुंचते ही शाम के आयोजन की तैयारी में जुट गए , मगर शाम का कोई आयोजक उन्हें मिल नहीं पा रहा था । इसलिए वे परेशान होने लगे। शाम के आयोजन की सहमति उन्हें मिल जाती तो वे दिन के आयोजन को सफल बनाने में प्राण पण से जुट जाते । उनके लिए शाम का आयोजन होना जरूरी था । शाम का प्रायोजक नहीं मिलने से दिन का आयोजन पिटा जा रहा था।
दिन के आयोजन का आयोजक परेशान हो गया । महाशय को जिस उत्साह और सम्मान के साथ बुलाया गया था , वह उनमें कहीं नजर नहीं आ रहा था । महाशय मंच पर उखड़े उखड़े बैठे हुए थे । उनके भीतर की जीवंतता कहीं उड़ गई थी । उनकी बेचैनी जब ज्यादा बढ़ गई तो दर्शक दीर्घा में प्रथम पंक्ति में बैठे आयोजक को उन्होंने अपने पास बुलाने का इशारा किया ।
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आयोजक मंच पर पहुंचा और महाशय के मुंह में अपना कान चिपका दिया ।
महाशय ने पूछा , आज शाम का आयोजन कब और कहां रखा गया है ?
आयोजक ने महाशय के मुख से चिपका अपना कान हटाया तथा अपना मुख महाशय के कान में रखते हुए प्रति प्रश्न किया , आप किस शाम की बात कर रहे हैं महाशय जी ? आज शाम का कोई आयोजन नहीं है। सिर्फ दिन दिन का आयोजन है । शाम होते होते यह आयोजन खत्म होने के बाद 5:00 बजे आपको आपके शहर की बस में बैठा देंगे। चिंता मत करिए ।
इसपर महाशय नाराज हो गए। यह क्या बदतमीजी है । मैं दिन का आयोजन तभी स्वीकार करता हूं जब शाम का आयोजन भी अच्छा होने की गारंटी होती है।
दिन वाला आयोजक घबरा गया। बोला , शाम 5:00 बजे बाद तो इस आयोजन के बांस , बल्ली , चांदनी , तंबू सब उतर जाएंगे । हमारे लिए तो दिन का आयोजन ही भारी पड़ गया है । शाम के बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते हैं।
महाशय क्रुद्ध होकर मंच पर ही बैठे रहे । आयोजक उनकी नजरों से ओझल हो गया ।
महाशय कार्यक्रम के बीच में मंच से उत्तर उतरकर आयोजन मंडल के सदस्यों से अलग-अलग वार्ता करके शाम की व्यवस्था हेतु टोह लेने लगे । मंडल के कुछ निर्लिप्त सदस्य आमंत्रण पत्र के कार्यक्रम अनुसार शाम के आयोजन की अनभिज्ञता प्रकट करने लगे। मंडल के जो लिप्त सदस्य थे वे दिन के अलावा शाम के आयोजन में महाशय जी के साथ लिप्त नहीं होना चाहते थे । क्योंकि लिप्तता की थी अपनी सीमाएं हुआ करती हैं , किंतु महाशय जी की कोई सीमा नहीं थी । वे शाम को निर्लिप्त भाव से लिप्त हुआ करते थे। महाशय जी की इस विशेषता को सब जानते थे कि शाम होते ही वे असीमित हो जाया करते हैं और फिर वह किसी भी सीमा में नहीं समाते हैं। तब उनके लिए तमाम सीमाएं छोटी पड़ जाए करती थीं। इसके बाद वे दूसरों की सीमाओं को छोटा करने में संलग्न हो जाते थे तथा उनकी समस्त प्रकार की संभावनाओं में निरंतर काट छांट करते चले जाते थे ।
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असल बात यह थी कि महाशयजी के लिए दिन की सीमा तो थी किंतु शाम की कोई सीमा नहीं थी । वे शाम को सीमा में नहीं रहते थे और ना ही शाम को किसी सीमा में बांधना चाहते थे । महाशयजी के लिए यह समय कुछ खास हुआ करता था जिस कारण महाशयजी चाह कर भी सीमा में नहीं रह पाते थे। शाम उनकी समस्त सीमाएं तोड़ देती थी , तथा खुद भी टूट जाते थे । महाशयजी के लिए सुबह होने का मतलब ही शाम की तलाश करना होता था । सुबह होते ही शाम उन्हें खींचा करती थी । वे किसी भी तरह दिन को छोटा करने की तरकीब लगाते रहते थे ताकि शाम लंबी हो सके। उनके लिए यह शाम इतनी लंबी हो जाती थी कि रात भी इसमें समा जाती थी ।
दिन के आयोजन का आयोजक महाशय की शाम प्रियता से इतना परेशान हो गया कि मजबूरन उसे अपने दिन के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए महाशय की शाम का इंतजाम करना पड़ा। इसके बाद उसे मालूम पड़ा कि आयोजन दिन की वजह शाम को किया जाता तो ज्यादा अच्छा होता। महाशय जी ने शाम के आयोजन को इतना सफल बनाया कि दिन का आयोजन असफल सिद्ध हो गया। यह शाम रात तलक खिंचती रही। इतनी खिंच गई कि खिंच खींचकर टूट ही गई।
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