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डा अजय अनुरागी

फागुन का धंधा होली का चंदा – डॉ. अजय अनुरागी

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मैं सच कहता हूं , मेरे ऊपर फागुन कभी नहीं आया


मैं सच कहता हूं , मेरे ऊपर फागुन कभी नहीं आया । मैं सोचता ही रह गया कि वह अब आएगा , अब आएगा , अब आएगा , मगर कभी आया ही नहीं , सत्यानाशी।
फागुन मेरे सामने से गुजरता रहा , मगर उसने इधर मुंह नहीं घुमाया। मनुहार करने पर भी दो-चार मिनट का स्टॉपेज इधर नहीं किया उसने । थोड़ा सा भी फागुन इधर आ जाता , तो मुझे भी जीवन में कुछ कर दिखाने का मौका मिल जाता ।
मित्रों के ऊपर फागुन हमेशा चढ़ा रहता था । बैसाख , जेठ के महीने में भी फागुन उनकी देह से नहीं उतरता था ।बल्कि ऐसा चढ़ जाता था कि बातों से नहीं उतर पाता था तो लातों से उतारना पड़ता था । और कभी-कभी तो फागुन को उतारने में लातें भी कम पड़ जाया करती थीं। तब आघातों का प्रयोग करना पड़ता था।
मित्र लोग ऐसे शौकीन थे कि फागुन को हमेशा अपनी पीठ पर चढ़ाए रखते थे । वह उनकी पीठ से खिसक कर उनकी कमर पर लटकता रहता था , मगर उसे उतारते नहीं थे । फागुन भी ऐसा था कि उनकी पीठ से उतरता ही नहीं था । बल्कि कंधे पर चढ़कर बैठ जाया करता था , और फिर वह सिर पर चढ़कर बोलने लगता था।
मित्रों पर फागुन हमेशा मेहरबान रहा करता था। उनके ऊपर पूरे जोर-शोर से छाया भी रहता था। मैं फागुन को हमेशा ढूंढता ही रहता था , मुझे वह मिलता ही नहीं था । मगर फागुन मिले कहां से ? वह मित्रों के भीतर घुसा रहता था ।

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फागुन के घुसने पर उनके पोर पोर पिराने लगते । जोड-जोड कसकने लगते और हाड हाड चटकने लगते । इन लक्षणों को देखकर पता लग जाता था कि फागुन कौन से मित्र के भीतर घुसा हुआ है। जिसमें घुस जाता था ,उसमें भेरुजी भर जाया करते थे। या भोमिया जी आ जाया करते थे।
कुछ मित्र परोपकारी किस्म के भी थे । उनका काम यही रहता था कि पहले वे फागुन को ढूंढते और फागुन को लाकर परम मित्रों के भीतर प्रवेश कराने का पुण्य प्रयत्न करते थे । जब फागुन चिन्हित मित्र में पूर्ण रूप से प्रवेश कर जाता था , तो फिर उसे बाहर निकालने की कोशिश किया करते थे। बस उनका फागुन संबंधी यही शौक था और यही उनका कौशल भी था । वे एक के भीतर से फागुन निकालते और दूसरे के भीतर प्रवेश करा देते । दूसरे के भीतर से फागुन निकालते तो तीसरे के भीतर प्रवेश करा देते । बस यही खेल चलता रहता ।
असल बात यह है कि जिनके जीवन में वसंत नहीं आता है , उनके जीवन में कभी फागुन भी नहीं आ पाता है। फागुन लाने के इच्छुक व्यक्तियों को जीवन में पहले वसंत लाने का प्रयास करना चाहिए । और याद रखना चाहिए कि वसंत के आने से पहले जीवन में पतझड़ भी आना जरूरी होता है । अक्सर ऐसा भी हादसा हुआ कि वसंत लाने वाले अभिलाषियों ने प्राकृतिक नियम के अनुसार पहले पतझड़ को गले लगा लिया और पतझड़ ऐसा गले पड़ा कि गले की हड्डी बनकर अटक गया। वह जीवन से गया ही नहीं । जीवन के आगे का सारा क्रम उनका गड़बडा गया । बल्कि चौपट हो गया।
पतझड़ जाए , तब बसंत आए । जब बसंत आए तब फागुन फहरे ।
लेकिन पतझड़ अड़ गया । अड़ा ही रहा । और वसंताभिलाषियों के तन मन में अच्छी तरह रम गया। उसने प्रण कर लिया कि ऐसी अच्छी जगह छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊंगा ।
जीवन में पतझड़ को कितनी देर झेला जा सकता है? जब बसंत की उम्मीद ही समाप्त हो जाए तो पतझड़ को झेलना से क्या फायदा ?
कुछ परोपकारी मित्र जो वसंत को जीवन में प्रवेश कराने और प्रस्थान कराने के विशेषज्ञ थे , वे भी पतझड़ को जीवन से निकाल पाने में असफल हो गए । पतझड़ से उनका पाला कभी पड़ा भी नहीं था । और उसको निकालने का उन्हें अनुभव भी नहीं था । इसलिए उनकी विद्या काम न आई।
उधर पतझड़ ने अपनी पूरी विशेषताओं के साथ जीवन में पैर जमा लिए । जब उनके जीवन में पतझड़ स्थाई रच बस गया तो वसंत की नई कोंपले नहीं फूट पाईं । अफसोस कि वे पतझडे के पतझडे ही रह गए ।
इधर “फागुन आ गया , फागुन आ गया” का शोर सुनकर बबुआ जाग गया। बबुआ ने पूरा कैलेंडर छान मारा , मगर उसे कहीं फागुन नहीं मिला। कैलेंडर में फरवरी आ गई , मार्च आ गया , यह फागुन कहां छुप गया भाई ?
बबुआ परेशान । किसी ने कहा फागुन कैलेंडर में नहीं ,सिलेंडर में देख, सिलेंडर में । सिलेंडर 100रूपए सस्ता हो गया है ।फागुन वहीं छुपा बैठा होगा ।
बबुआ ने देखा , आटा दाल तो महंगा हो गया है । ऊपर ऊपर सस्ता और नीचे नीचे महंगाई । फागुन सिलेंडर में होकर घुसा और दालों की तरफ होकर निकल गया। वह सरसों और सोयाबीन के तेल की तरफ बढ़ गया । अब फागुन ब्रांड नहीं रहा , वो बॉन्ड बन गया है।
अजी सुनो भाई साहब , आपने फागुन के लिए क्या किया है , जो आपके जीवन में फागुन आएगा ? आपका तो जीवन ही फागुन के अनुकूल नहीं है। आप फागुन को पाकर भी क्या गुल खिला लेंगे ?
अफसोस तो यह है कि जिनके पास फागुन आ गया है , वे सोच रहे हैं कि इसका क्या करें ? उनसे फागुन पच नहीं रहा है । न कट पा रहा है । काटने से भी नहीं कट रहा।
श्रीमान जी , फागुन फसल काटने का महीना है । आप फल की तरह चाकू से फागुन को काटेंगे तो वह नहीं कटेगा। उसे हंसिए से काटोगे तो कट जाएगा ।

फागुन में होली आती ही इसलिए है , कि कुछ पक्के रंग चढ़ाए जा सकें । होली का रंग ऐसा चढ़ जाता है कि पूरे साल नहीं उतरता है । कभी-कभी तो यह रंग पूरे जीवन नहीं उतर पाता है ।
जो कभी नहीं हो सकता , वह होली पर हो सकता है । यह होली की संभावना है। होली पर वर्जित गतिविधियों को करने की सामाजिक छूट हुआ करती है। जो गतिविधि आपसे सालभर में नहीं हो पाई उसे होली पर कर डालिए। यही होली में छूट की लूट है।
असल में यह एक्टिविटी बेस त्योहार है। होली की एक्टिविटी भी क्रिएटिविटी की मांग करती है।
अरे भाई , अरे । होली पर धंधा जरा मंदा चल रहा है और तुम होली का चंदा लेने आ गए । तुम्हें पता है हम न तो चंदा लेते हैं और न चंदा देते हैं । और और यह भी कि ना हम चंदा खाने देते हैं । तुमने तो हर बार चंदे का यह फंडा ही बना लिया है।
उधर से भारी भरकम आवाज आई , होली हर साल आती है , तो चंदा भी हर साल देना होगा। ओ फागुन के अंधे , धंधा करना है तो चंदा देना ही पड़ेगा। पिछली बार का चंदा पिछली होली में दहन हो गया । इस बार फिर होली आ गई है तो फिर चंदा चाहिए । वरना होली में तुझे प्रह्लाद बना डालेंगे।
ओ पतझड़ के मारे , चंदे का मतलब समझता है ,मतलब चंदे की होली सब की होली होती है समझे । चुपचाप चंदा देकर सामाजिक होली में शामिल हो जा इसी में भलाई है , अन्यथा ये फागुन तेरा सत्यानाश कर डालेगा। समझा कि नहीं। इधर से आवाज मिमियाई , समझ गया भारी भाई, सब समझ गया। जय हो होली की।

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